समाज सेवा
आज के जीवन की आप-धापी में हम अपने तक सीमित हो कर रह गए हैं। हमारी चिंता के दायरे में हम स्वयं, हमारा परिवार और नजदीकी रिश्ते-नातेदार रह गए हैं। समाज हमारी चिंता के दायरे से बाहर हो गया है। इसलिए हम जन-साधारण की चिंता अब लगभग नहीं करते। हम जो कमाते हैं, वह कमाई केवल हम अपने ऊपर ही खर्च करने में विश्वास रखते हैं। आधी सदी पहले तक यह स्थिति नहीं थी। मनुष्य जो कुछ कमाता था, उसका एक अंश किसी न किसी रूप में भलाई या कल्याण के काम में खर्च करता था। आज हम सेवा क्षेत्र के लिए सरकार के भरोसे सब कुछ छोड़े दे रहे हैं। जो हमारे समाज के लिए जिम्मेदारी है, उससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए कल्याण या समाज सेवा का काम हमारे एजेंडे से बाहर हो गया है।
इसे हमारे एजेंडे में फिर से शामिल करने की जरूरत है। यदि हम अपनी आय का एक हिस्सा नियमित या अनियमित रूप से भलाई या कल्याण के काम में लगाएं तो हमें मानसिक संतोष प्राप्त होगा। हमारे मन में यह भावना मजबूत होगी कि हम जिस समाज में रहते हैं, उसके लिए हमने कुछ सार्थक योगदान दिया है।
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लोक व्यवहार की कला सनातन धर्म के शास्त्रों में लिखा है कि जैसा व्यवहार तुम दूसरे से अपने साथ चाहते हो वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करो। जो व्यवहार तुमको अच्छा नहीं लगता वो दूसरों के साथ भी मत करो। यह वाक्य समस्त संसार में बहुत प्रसिद्ध है। इस वाक्य को हर भाषा में लिखा गया है। यह बिल्कुल सही कहा गया है। हर मनुष्य चाहता है कि...
जहाँ गरीब देश की अधिकांश जनता को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता, वहाँ इन जनप्रतिनिधियों के लिए इतने शानशौकत के महल और उसके साथ-साथ अनेक लग्जिरियस तामजाम अलग। इनकी यह व्यवस्था शहनशाहों व राजाओं से भी अधिक भड़कीली होती है। सुविधा इनकी, परन्तु नाम देश की प्रतिष्ठा का लिया जाता है। जिस प्रतिष्ठा का ये बहाना...